सोमवार, 15 अगस्त 2011

1मार्च 1931 का समाचार पत्र जिसमें चन्द्रशेखर आजाद की मृत्यु के समाचार के साथ तहसीलदार की हत्या का भी समाचार छपा था


स्वतंत्रता दिवस को छुट्टी का दिवस के स्थान पर गंभीर चर्चा दिवस क्यों नहीं मानते हम लोग?

आजादी के नायक चंद्रशेखर आजाद के जन्मदिवस के दो दिन पूर्व यानी 21 जुलाई की बात थी मै एक आवश्यक राजकीय कार्य के चलते उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले शहर इलाहाबाद गया हुआ था। थोडा समय बचा तो इलाहाबाद राजकीय पुस्तकालय पहुँच गया।
पुस्तकालय में पुराने समाचार पत्रों में आजादी के नायक चंद्रशेखर आजाद के संबंध में छपी खबरों को ढूँढकर उसके चित्रों के साथ एक आलेख बनाने की योजना थी। (इससे संबंधित पोस्ट 23 जुलाई 2011 को कोलाहल से दूर... ब्लाग पर जारी हुयी थी जिसे आप सबका भरपूर सम्मान और समर्थन मिला था)
आजाद जी की खबरों वाले समाचार पत्र का छायाचित्र लेने के दौरान ही उसी समाचार पत्र में छपी एक खास खबर पर निगाह अटक गयी। जिस दिन चंद्रशेखर आजाद को इलाहाबाद के एन्फेड पार्क में घेरकर पुलिस द्वारा आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया गया था उसी दिन समीपवर्ती जनपद फतेहपुर मे सरकारी धनराशि की वसूली हेतु पहुँचे एक सरकारी अधिकारी (तहसीलदार) को लाठी डंडों से पीट पीट कर मार डाला गया था। आजाद जी की मृत्यु के साथ यह समाचार भी समाचार पत्र के मुख्यपृष्ठ पर ही छापा गया था।




चित्र-1 .1मार्च 1931 का समाचार पत्र जिसमें चन्द्रशेखर आजाद की मृत्यु के समाचार के साथ तहसीलदार की हत्या का भी समाचार छपा था

इस महत्ववपूर्ण समाचार को पढने के बाद बाद मुझे पिछले दिनो मे महाराष्ट्र के अमरावती जिले में तेल माफियाओं के विरूद्ध कार्यवाही करने वाले एक अपर जिलाधिकारी को कैरोसीन तेल डालकर जलाकर मार डालने का समाचार याद हो आया। साथ ही याद हो आया लगभग 90 वर्ष पूर्व महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन और आज के अन्ना हजारे का अनशन।
प्रशासन के प्रतीक उसके अधिकारियों से जुडी उक्त दोनो घटनाओं में मुझे यह साम्यता दिखी कि 1931 में जहाँ आम भारतीय का आक्रोश सरकारी अधिकारी की मृत्यु का कारण बना वहीं 2011 में अपनी इच्छानुसार कालाबाजारी न कर पाने में सक्षम माफिया का दुस्साहस एक सरकारी अधिकारी की मृत्यु का कारण बना।


चित्र-2 समाचार का क्लोज-अप जिसमें तहसीलदार केा लाठी डंडों से पीट-पीटकर मार डालने की सूचना थी
इस स्थान पर मैं यह विचार करने के लिये विवश हो गया कि आज से लगभग 90 वर्ष पूर्व 1920 में महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन के रूप में जिस निर्णायक लड़ाई का आरंभ हुआ था उसकी गंभीर परिणति के रूप में सरकार के विरूद्ध जिस जनाक्रोश ने 1931 में शासन के प्रतीक तहसीलदार को लाठी डंडो से पीट पीट कर मार डालने जैसा विध्वंसकारी स्वरूप ले लिया था क्या वैसा ही जनाक्रोश इस देश की जनता के मध्य 80 वर्षो के बाद पुनः जाग उठा है? शायद हमें इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है ।
संभव है जब आप यह पोस्ट पढ़ रहे हों तब तक अन्ना हजारे के अनशन को सरकारी अनुमति मिल चुकी हो लेकिन स्वतंत्रता दिवस की यह चौसठवीं वर्षगांठ इस मायने में महत्वपूर्ण है कि हमारे लोकतंत्र में घर कर गयी अनेक गंभीर खामियों के प्रति एक गंभीर चर्चा आम जन ने आरंभ तो कर ही दी है।
इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने में हम सबको बराबर की मेहनत करनी होगी कि कहीं हम लोकतंत्र मे घर करती जा रहीं गंभीर कमियों के प्रति नरम रवैया अपनाकर कर कोई ऐतिहासिक गलती तो नहीं कर रहे है?
स्वतंत्रता दिवस को छुट्टी का दिवस के स्थान पर गंभीर चर्चा दिवस क्यों नहीं मानते हम लोग? आइये इस दिवस को हम इस विषय में सोचने के दिवस के रूप में मनायें। जै हिन्द! जै भारत!! भारत माता की जै

1 टिप्पणी:

  1. सुन्दर चित्रों से सुसज्जित शानदार प्रस्तुती!
    आपको एवं आपके परिवार को जन्माष्टमी की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें !
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

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