शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

भूमि अधिग्रहण के विरूद्ध किसानो की आक्रामक भूमिका की पडताल

पश्चिम बंगाल का सिंगूर का किसान हो या उत्तर प्रदेश के नोएडा का किसान, भूमि अधिग्रहण के मामले पर सरकार के विरूद्ध सभी एक जैसी आक्रामक भूमिका में ही क्यों दिखलायी पडते हैं? इस प्रश्न का उत्तर तलाशते हुये मैं उत्तर प्रदेश के अनेक मंडलों में भूमि अधिग्रहण संबंधी कार्य देखने वाले अपने एक सहयोगी अधिकारी तक जा पहुँचा जो नवगठित उत्तराखंड राज्य के औद्योगिक हब रूद्रपुर, सिडकुल सहित अनेक उपखंडो में उपजिलाधिकारी/भूमि अध्याप्ति अधिकारी के रूप मे तनावरहित वातावरण निर्मित करते हुये भूमि अधिग्रहण का संचालन सफलता पूर्वक कर चुके हैं।
श्री सिंह भूमि अधिग्रहण कानून के बारे में बताते हुये उसे उद्गम तक जा पहुँचे जहाँ मैने इस कानून के प्रयोग में लाये जाने पर उत्पन्न होने वाले जनाक्रोश को भाँपाने का प्रयास किया। मैं संभवतः कुछ हद तक इस इसे भाँप पाया हूँ। अब आपके साथ इस कोशिश के साथ साझा कर रहा हूँ कि शायद आप भी उसे भाँप सकें।

वास्तव में संघीय गणराज्य भारत में प्रत्येक राज्य में भूमि की व्यवस्था से संबंधित अपने अलग अलग अधिनियम एवं प्राविधान हैं जिनके अनुरूप संबंधित राज्य अपने निवासियों भूमि का प्रबंध करता है। राज्य को विकास अथवा अन्य प्रयोेजनार्थ जब किसी भूमि की अपरिहार्यता होती है तो भूमि को अधिग्रहीत किया जाता है। भूमि के अधिग्रहण से संबंधित कानून भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 है जिसे संघीय ढांचे में अनेक अधिनियमों के साथ केन्दीय कानूनों के रूप अंगीकार किया गया है।
इस अधिग्रहण से संबंधित कानून की थोडी सी एतिहासिक पृष्ठभूमि जानने के दौरान आप भी उन कारणों को भाँप सकते हैं जो आजकल इसको प्रयोग में लाये जाने पर उत्पन्न होने वाले जनाक्रोश की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं।
भारतवर्ष में अचल सम्पत्तियों के अधिग्रहण के लिये शुरूआती प्राविधान आज से 187 वर्ष पूर्व 1824 में अंग्रेजी कंपनी इस्ट इण्डिया के शासको द्वारा किये गये जब भारत की तत्कालीन राजधानी कल्कत्ता में बंगाल रेगुलेशन एक्ट 1828 के माघ्यम से भूमि अर्जित करने का प्रविधान में किया गया था। तत्समय लागू किये गये इस ऐक्ट में विद्यमान कतिपय विधिक प्रावधान से अनेक समस्यायें उत्पन्न होती थीं जिनके निराकरण हेतु ऐक्ट संख्याः1, 1850 का प्रादुर्भाव हुआ। तत्समय भारत के पूर्वी तट के प्रमुख बंदरगाह बांम्बे और कोलाबा में भूमि अधिग्रहण एवे प्रतिकर निर्धारण हेतु पृथक से बांबे प्रेसिडेन्सी बिल्डिंग ऐक्ट 1839 की ब्यवस्था की गयी थी। इसी अधिनियम को बाद में रेलवे के लिये भूमि अधिग्रहण हेतु भी (प्रेसीडेंसी क्षेत्र में) लागू किया गया था। मद्रास प्रेसीडेन्सी द्वारा भूमि अधिग्रहण एक्ट 1852 मद्रास में अस्तित्व में आया।
भारत में 1857 के विद्रोह के बाद ईस्ट इण्डिया कम्पनी के उपनिवेशिक क्षेत्र में भूमि अधिग्रहण हेतु एक समान कानून की आवश्यकता महसूस की गयी तथा उपरोक्त सभी कानूनों को समाप्त कर एक्ट 1857 लागू किया गया। इस ऐक्ट के द्वारा भूमि के मूल्यांकन का अधिकार कलेक्टर को दिया गया तथा पक्षकारो के मध्य विवाद की स्थिति में आर्विटेटर द्वारा समाधान किये जाने तथा उससे असहमति की दशा में सिविल कोर्ट में वाद दायर करने का प्रावधान किया गया। पुनः इस अधिनियम को 1861 में संशोधित किया गया।
निजी व्यक्तियों एवं कम्पनियों के लिये भूमि के अधिग्रहण की शुरूआत इसी काल में हुयी चूंकि अधिनियम 1861 के माध्यम से निजी व्यक्तियों एवं कम्पनियों के लिये भूमि के अधिग्रहण में समस्याये आती थीं अतः एक प्रथक अधिनियम सन 1863 में बनाते हुये निजी व्यक्तियों एवं कम्पनियों के लिये भी भूमि अधिग्रहण एक्ट 1863 का प्रावधान किया गया। उल्लेखनीय है कि तत्समय 1857 का ऐक्ट भी इसके साथ साथ लागू रहा जिसके चलते भूमि अधिग्रहण की दोहरी व्यवस्था स्थापित हो गयी थी।
सन 1870 में उक्त दोनो कानूनों को समाप्त कर एक समेकित कानून बनाया गया जो सार्वजनिक उपयोग एवं कम्पनियों दोनो के लिये भूमि का अर्जन करने में सक्षम था यह एक्ट भूमि अर्जन एक्ट 1870 था। 1870 के इस ऐक्ट में विभिन्न प्रकार की विसंगतियों /कमियों के निराकरण एवं भूस्वामियों की सुविधाओ को समाविष्ट करते हुये एक संशोधित विधेयक का प्रस्ताव 1892 में भारत की कौंसिल के समक्ष प्रस्तुत हुआ जो गर्वनर जनरल के अनुमोदन के उपरांत 1 मार्च 1894 केा भूमि अध्याप्ति अधिनियम 1894 के रूप में प्रभावी हुआ। इस प्रकार 1870 के ऐक्ट को भी 1894 में अंतिम रूप से समाप्त कर दिया गया।
1 मार्च 1984 में लागू हुये भूमि अध्याप्ति अधिनियम 1894 के द्वारा लोक प्रयोजन एवं कम्पनियों दोने के लिये भूमि का अधिग्रहण कब्जा हस्तान्तरण एवं प्रतिकरण निर्धारण के सम्बन्ध में व्यापक प्रविधान किये गये थे। भारत की स्वतंत्रता के बाद अनेक अन्य अधिनियम की भाँति इस अधिनियम में भी भारत सरकार द्वारा केन्द्रीय कानून के रूप में अंगीकार किया गया।
कालान्तर में भूमि अध्याप्ति से संबंधित यही अधिनियम उत्तर प्रदेश राज्य सहित संघीय गणराज्य के सभी राज्यों द्वारा आवश्यकतानुसार संशोधनो के साथ अंगीकार किया गया। सामान्यतः सार्वजनिक उपयोगिता के निर्मित होने वाली बडी परियोजनाओं हेतु ही भूमि का अधिग्रहण इस अधिनियम में प्रदत्त शक्तियों के माध्यम से किया जाता रहा है।
आज बस इतना ही अगली पोस्ट में चर्चा करेंगे भविष्य में प्रस्तावित होने वाले उस भूमि अधिग्रहण कानून की जिसका मसौदा उत्तर प्रदेश सरकार की उच्च स्तरीय सहमति के उपरांत केन्द्रीय कानून का दर्जा देने के लिये भारत सरकार को भेजा जा रहा है।

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